समकालीन प्रतिस्पर्धी दौड़ में मानवता, पर्यावरण के प्रति जो भयावह परिदृश्य
हम देख रहे हैं, उससे एक सवाल मन में उभर रहा है कि क्या 90 प्रतिशत
मनुष्यों को सुख-शांति देनेवाले मनुष्य-समाज की कल्पना को लेकर आगामी 50-60
साल की अवधि में कोई विश्वसनीय खाका खींचा जा सकता है। आत्मकेंद्रित होते
समाज में गांधी-विनोबा का स्वालंबन सहित सर्वोदय का विचार दूर होता दिख रहा
है। विनोबा ने गांधीजी के जीवनादर्शों पर चलकर सर्वोदय के विचार को अपनाया।
सर्वोदय का मतलब होता है - सबका उदय। तुम 'जिलाने के लिए जीओ' अर्थात सब लोग
जिए और एक-दूसरे के साथ-साथ जिए। गांधीजी ने समाज में अंत्योदय (अंतिम पंक्ति
में खड़े व्यक्ति के उदय) को सर्वोदय की पहली एवं वास्तविक कड़ी माना है।
ऐसा माना जाता है कि विनोबा ने गांधीजी के सर्वोदय/अंत्योदय के विचारों को
आध्यात्मिकता प्रदान किया है। यह आध्यात्मिकता विचारों से लेकर दर्शन तक के
स्तर पर देखने को मिलती है। सर्वोदय के अर्थ को स्पष्ट करते हुए विनोबा अद्वैत
दर्शन की बात करते हैं, जहाँ किसी प्रकार की भिन्नता नहीं होगी, चाहे वह
मानव-स्तर पर हो या प्रकृति स्तर पर। उनके लिए सर्वोदय कोई कोरी कल्पना नहीं
है, बल्कि यह आदर्श व्यवहार है, जिसे अमल में लाया जा सकता है। विनोबा के लिए
सर्वोदय का तत्वज्ञान कुल मिलाकर समन्वयात्मक है, यानी सारे विचारों को
एकत्रित करने की शक्ति सर्वोदय में निहित है।
दुनिया में प्रायः दो तरह के सिद्धांत प्रचलित हैं। पहला - दूसरों का खाकर जीओ
और दूसरा- जीओ और जीने दो। ये दोनों ही सिद्धांत अपने आप में एकांगी स्वरूप
लिए हुए हैं। इनके बरक्स तीसरा सिद्धांत आया-तुम जिलाने के लिए जीओ। जब
प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को जिलाने के लिए जिएगा, तभी केवल और केवल सबका
जीवन संपन्न होगा, सबका उदय होगा। तभी वास्तविक अर्थों में सर्वोदय होगा।
दूसरों को अपना बनाने के लिए प्रेम का आधार सभी धर्मों में उल्लिखित है और यह
प्रेम का विस्तार अहिंसा से ही संभव है। इस प्रकार सर्वोदय जीवन के शाश्वत
एवं व्यापक मूल्यों की स्थापना करना चाहता है और इस मार्ग में आने वाले बाधक
तत्वों का निराकरण भी।
सर्वोदय का लक्ष्य एक ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणविहीन समाज की स्थापना
करना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास के लिए
समान रूप से साधन और अवसर मिलेंगे। सर्वोदय दर्शन इस बात को मूल रूप से
स्वीकार करता है कि अहिंसा और सत्य द्वारा ही समतामूलक समाज का निर्माण किया
जा सकता है। इस प्रकार दूसरे शब्दों में कहें तो सर्वोदय की पृष्ठभूमि
आध्यात्मिक है। यह आध्यात्मिकता 'स्व' के फैलाव में है, जहाँ किसी में 'भेद'
चाहे वह प्राणी हो या प्रकृति में, नहीं रहता और वास्तविक अर्थों में 'अभेद'
की स्थिति रहती है जो अद्वैत दर्शन का भी तात्पर्य है। यह वास्तविक अर्थों में
स्वराज की प्राप्ति हो सकती है। स्वराज का मतलब अपने ऊपर शासन करना नहीं होता
है, बल्कि प्रकृति के फैलाव का स्वीकार करना भी है और यह स्वराज वास्तविक
अर्थों में तभी आता है, जब 'अभेद' की स्थिति बने और सबका उदय सर्वोदय अपने
वास्तविक स्वरूप में परिलक्षित हो। सर्वोदय जिस बदलाव का प्रतिपादन करता है।
उसके जीवन के मूल्यों में परिवर्तन करना होगा, उसके लिए हमें द्वैत से अद्वैत
की ओर, भेद से अभेद की ओर बढ़ना होगा। सर्वोदय से सत्य, अहिंसा, अस्तेय,
अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, सर्वधर्म समभाव, श्रम की प्रतिष्ठा, अभय और
स्वदेशी आदि एकादशव्रत स्वतः स्फूर्त होते हैं।
महात्मा गांधी ने सर्वोदय के इस दर्शन को जन्म देकर सार्वजनिक जीवन और
व्यक्तिगत जीवन की साधनाओं को एक में मिलाकर सामाजिक मूल्यों का रूप दिया,
किंतु सर्वोदय के पूरे दर्शन को विनोबा ने ज्यादा विकसित किया। भूदान,
ग्रामदान, साधनदान, बुद्धिदान आदि की प्रक्रियाएँ हृदय परिवर्तन की ही तो
प्रक्रियाएँ हैं, जिसे विनोबा जमीन पर प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में यदि हम
सर्वोदय की अवधारणा के संदर्भ में गांधी और विनोबा पर साथ-साथ दृष्टि डालें तो
पाएँगे कि गांधी केवल रामराज्य की बात करते हैं, जबकि विनोबा इनसे दो कदम और
आगे बढ़कर 'जय जगत' को गुंजायमान करते हैं, इस दर्शन को आध्यात्मिकता का स्पर्श
देते हैं और साथ ही उसे ठोस रूप में मूर्त भी करना चाहते हैं - भूदान आंदोलन
इसका प्रमाण है। उन्होंने कहा था कि - मुझे समाज के उन तबकों को जमीन दिलवानी
है, जो वास्तविक रूप में समाज के हाशिए पर हैं। विनोबा तो भूदान क्रांति से
दुनिया पलटने के लिए घूमने लगे। उनका स्वप्न सत्तर हजार विचारवान और आचारवान
लोगों की एक शांति अहिंसा सेना खड़ा करना था। अहिंसा के सामाजिक प्रचार के लिए
'भूदान आंदोलन' एक अधिष्ठान ही बन गया था। भूदान यात्रा के तीसरे दिन (18
अप्रैल, 1951 ई.) पोचमपल्ली (आंध्र प्रदेश) में रामचंद्र रेड्डी सौ एकड़ जमीन
वहाँ के हरिजनों को देने को तैयार हुए। विनोबा को भूदान के लिए एक बड़ी सफलता
बिहार यात्रा के दौरान (14 सितंबर, 1952 से 31 दिसंबर 1954 ई.) प्राप्त हुई,
इसमें 23 लाख एकड़ भूमि मिलीं। बिहार में भूदान के लिए जो प्रेम विनोबा को
मिला, इसकी स्पष्ट झलक 'अहिंसा की तलाश' पुस्तक में मिलती है कि-'वहाँ की जनता
की सरलता-उदारता हृदय को छुए बिना नहीं रह सकती। हम जिसे प्रांतीय भावना कहते
हैं, वह बिहार के लोगों में दूसरे प्रांतों की तुलना में बहुत कम मालूम हुई।
वहाँ के लोगों ने मुझे आत्मीय भाव से माना। बहुत आनंद और अपार शांति का वहाँ
अनुभव हुआ। मनुष्य की आत्मा में केवल आनंद जितना व्यापक आकाश है, उतना ही
व्यापक आनंद है। बिहार की भूमि में वह आनंद हमने बहुत लूटा। आकाश के समान
विशाल हृदय का सर्वत्र स्पर्श हुआ। इसलिए इस यात्रा को आनंद यात्रा कहता
हूँ...।' विनोबा ने भूदान आंदोलन से प्रत्यक्ष पैदाइश को बढ़ावा देने के लिए
समाज को एक नई दिशा दी। विनोबा का मत था - समाज के हाशिए के लोगों (खासकर
बच्चे, बूढ़े, बीमार, विधवाएँ, बेकार) के लिए संपत्ति, अपने धन का छठा हिस्सा
दान करें, यह दान सबसे पुनीत दान है। संपत्ति दान को वे शांति, सेना,
ग्रामदान, खादी काम में और इससे बढ़कर सबके साथ प्रेम के लिए सहमति मानते हैं।
सर्वोदय पात्र से मिलने वाले अनाज का उपयोग क्रांति के लिए, यानी नए समाज की
पुनर्संरचना में काम आ सकता है। इसे विनोबा से ही कोई सीख सकता है। उनमें
'ईशावास्यमिदं सर्वंम' के प्रति विश्वास और समाज में इसके प्रति आकर्षण को,
जयप्रकाश नारायण के शब्दों में कहा जा सकता है कि विनोबा अतीव पिछड़े और हाशिए
के लोगों के सभी कष्टों को उक्त मंत्र से समाज को प्रेरित करके दूर करना एवं
सब में समता और समदर्शिता की रोशनी फैलाना चाहते थे, जिससे सर्वोन्नति और सभी
का समान विकास हो।